
प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ‘किसानों के हित’ के लिए बने तीनों कानून वापस लेने की घोषणा कर चुके हैं। इन्हीं कानूनों की वापसी के लिए किसानों का आंदोलन लंबे समय से चल रहा था। मौजूदा सरकार से लेकर पिछली सभी सरकारें किसानों के ‘हित’ में फैसले करती आ रही हैं लेकिन किसान अंग्रेजों के जमाने में भी तबाह था, गरीबी में जीवन यापन कर रहा था और उन्हीं अंग्रेजों के बनाए कानूनों के सहारे देश पर राज करने वाले हमारे अपनों के जमाने में भी तबाह है। कोई माने या न माने, अनेक सफलतम योजनाओं के बीच किसान और किसानी का कड़वा सच यही है।
नेताओं के लिए किसान मुझे वोट से ज्यादा कुछ नहीं दिखा
हम सब जानते हैं कि किसी भी समस्या को जड़ से दूर करने के लिए सबसे पहले समस्या को स्वीकार करना जरूरी है। उससे पहले आवश्यक है कि हम समस्या को जानें। जब सही समस्या पता हो, उसी अनुरूप योजना बने और उस योजना को सही तरीके से अमल में लाया जाये तब उम्मीद बनती है कि चीजें सही दिशा में जायेंगी और परिणाम बेहतर आयेंगे। पर अफ़सोस कि सब कुछ उल्टा-पुल्टा ही होते हुए दिखता है। अपने 30 वर्ष के पत्रकारीय जीवन में नेताओं के लिए किसान मुझे वोट से ज्यादा कुछ नहीं दिखा। ठीक चुनाव के पहले किसानों के कर्ज माफ़ी की घोषणाएं इसकी गवाह हैं। ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि हम ऐसी योजनाएं तैयार करें, जिससे किसान कर्ज लौटाने की स्थिति में हो। ऐसा होगा तो बैंकों को भी चपत नहीं लगेगी। किसान भी संपन्न होगा और मुट्ठी भर टैक्स पेयर्स का पैसा देश के विकास में कहीं और लग सकेगा। छोटे किसान तो बड़ी संख्या में ख़ुदकुशी कर रहे हैं। अपनी असली वेशभूषा में किसी भी सरकारी-गैर सरकारी दफ्तर में पहुँचने वाले किसान को सम्मान नहीं मिलता, जबकि उसी किसान की मेहनत से उगाया हुआ अन्न-सब्जियाँ खाकर साहब दफ्तर पहुँचते हैं।

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मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश से हूँ। छोटे किसान परिवार से हूँ। यहाँ बड़े किसानों के पास भी 50 बीघे उपजाऊ जमीन मुश्किल से है। पश्चिम उत्तर प्रदेश में किसान के पास जमीन अपेक्षाकृत ज्यादा है। किसानों का दर्द और अफसरों की ‘मासूमियत’ को समझने के लिए मैं इसी उत्तर प्रदेश की एक बहुप्रचारित बेहतरीन योजना की चर्चा यहाँ करने का दुस्साहस कर रहा हूँ, जो यह समझने के लिए पर्याप्त है कि अफसर कैसे मुख्यमंत्री की पसंद की योजना की बैंड बजाते हैं।
आवारा पशु फसलों के दुश्मन बने हुए हैं
पढ़िए, महसूस करिये और हाँ, इस लेख को राजनीतिक चश्मे से न देखने की गुजारिश है। आवारा पशु फसलों के दुश्मन बने हुए हैं। बीघों फसल रातों-रात तबाह हो रही है। यह सिलसिला बरसों से चल रहा है। किसान की मेहनत पर रातों-रात पानी फिरना आम है। शाम को जिस लहलहाती फसल को देख किसान खुश होकर घर जाता है, सपने देखता है, सुबह वही फसल तबाह देखकर आँखों में आँसू आ जाते हैं। वह कभी सरकारों को कोसता है तो कभी पशुओं को, जिनका कोई मालिक नहीं है।

सीएम की मंशा को अफसरों ने पलीता लगा दिया
उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री के रूप में योगी आदित्यनाथ ने शपथ लेने के कुछ दिन बाद ही छुट्टा जानवरों की समस्या को समझा और इसके उपाय की योजना पर काम शुरू हुआ। अफसरों ने सीएम का आदेश पाते ही जिला और तहसील स्तर पर गोशालाओं के निर्माण की घोषणा कर दी। इस घोषणा से लोगों को लगा कि अब कुछ राहत मिलेगी लेकिन सीएम की मंशा को अफसरों ने पलीता लगा दिया। आनन-फानन जो गोशालाएँ शुरू हुईं, अब उनमें कुछ ही चल रही हैं। गोशालाओं की बर्बादी की कहानी बयाँ करती तस्वीरें अक्सर सोशल मीडिया में यदा-कदा दिखती रहती हैं। जो चल रही हैं, वहाँ पशु नहीं हैं। वे हैं तो उनके भोजन का इंतजाम नहीं है। गोवंश के बीमार होने, मरने की सूचनाएं आम हैं।
गोशालाओं की कहानी बहुत रोचक है। डीएम और एसडीएम की अध्यक्षता वाली कमेटियों को गोशालाओं को आवश्यकता के अनुरूप खोलने का अधिकार दिया गया। तय किया गया कि सरकारी दस्तावेजों में चारागाह वाली जमीन पर इस काम को किया जाये। यह भी तय किया गया कि गोशालाओं को आत्मनिर्भर भी बनाया जाएगा। पर, अभी तक किसी भी गोशाला के आत्मनिर्भर बनने की कहानी सामने नहीं है। योजना यह भी थी कि गोशाला में हरे चारे की खेती होगी। गाय के गोबर के उपले बाजार में बेचे जाएँगे। गोमूत्र से दवाएँ तैयार होंगी। इसके लिए अनेक दवा कंपनियों के भी सामने आने के दावे किये गए।
अफसरों को शायद भूसा-खली-चूनी-दाना के बाजार भाव की जानकारी नहीं
छुट्टा जानवरों को पकड़ कर गोशालाओं तक लाने की जिम्मेदारी इसी कमेटी को सौंपी गयी। तय यह भी हुआ कि अगर दूध देने वाली गाय कोई जरूरतमंद पालना चाहे तो उसे सुपुर्दगी में दिया जाए और गोपालन के लिए 900 रूपये महीने का भुगतान उस व्यक्ति को दिया जाए, जो गोशाला से दूध देने वाली गाय की सुपुर्दगी लेता है। यानि तीस रूपये रोज के हिसाब से एक गाय का भरण-पोषण तय किया गया। इसी दर से गोशाला में उपलब्ध पशुओं का खर्च भी तय किया गया और यहीं एक बड़ी गड़बड़ी हो गयी। इस दर को तय करने वाले अफसरों को शायद भूसा-खली-चूनी-दाना के बाजार भाव की जानकारी नहीं थी।

आज बाजार में छह-सात रुपये किलो भूसा मिल रहा है। कई बार यही भूसा 10-12 रूपये किलो भी मिलता है। एक जानवर औसतन पाँच किलोग्राम भूसा रोज आसानी से खा लेता है। 25 से 30 रूपये का चूनी-चोकर लगता है। गोशाला में ज्यादा पशु होने की सूरत में कम से कम दस रूपये रोज के हिसाब से एक जानवर की देखरेख करने वाले आदमी पर खर्च होना बहुत स्वाभाविक है। इस तरह एक जानवर पर कम से कम 75 रूपये रोज का खर्च आसानी से होता है। इसमें दवा, डॉक्टर का खर्च शामिल नहीं है। अगर कोई गाय दूध देती है तो उस पर आने वाला खर्च कुछ ज्यादा हो सकता है। यह और बात है कि उससे मिलने वाले दूध की भी कुछ न कुछ कीमत होगी। पर, यह सब सपने जैसा हो गया। असलियत से दूर हो गया। जिस अफसर ने शुरू किया, वे अब किसी और जगह हैं। जो आये हैं, शायद उनकी इसमें रूचि नहीं है।
अब चुनाव सिर पर है… गाँव-गाँव आवारा पशुओं का शोर है
अब चुनाव सिर पर है। गाँव-गाँव आवारा पशुओं का शोर है। गोशालाओं का या तो पता नहीं है या फिर वहाँ पशु नहीं हैं। ज्यादातर पशु आवारा घूम रहे हैं। किसानों की मेहनत को तबाह कर रहे हैं। ख़ास बात यह है कि मुख्यमंत्री की मंशा को पलीता लगाकर अफसर भूल भी गए हैं। उन्हें न तो सीएम योगी आदित्यनाथ की छवि की परवाह है और न ही राज्य के किसानों की चिंता। न जाने क्या हो जाता है कि हमारे अपने घरों के युवा अफसर बनते ही भारत की जड़ों को भूल जाते हैं। किसान उनकी नजर में अंतिम पायदान पर पहुँच जाता है। ऐसा नहीं होता तो किसानों के लिए तैयार गोसंवर्धन की अतिमहत्वाकांक्षी योजना ढेर नहीं हो जाती। जब अफसरों ने सीएम को सपने दिखाये होंगे तो कितनी खूबसूरत तस्वीर बनी होगी। देवरिया के किसान रवि कहते हैं-30 रूपये में एक गोवंश का पालन किसी भी सूरत में संभव नहीं है। यह योजना बनाने वालों की चूक है। उन्हें जमीनी हकीकत का ज्ञान नहीं है। तभी वे 30 रूपये में एक गोवंश का खर्च मंजूर किये हुए हैं। उनका कहना है की कोई बड़ी बात नहीं कि कभी इसकी जांच हो तो एक और चारा घोटाला सामने आये।

इस सच से हम सब वाकिफ हैं कि भारत देश किसानों का ही है। आज भी देश की 70 फीसदी आबादी गाँवों में ही रहती है। इसलिए नीति आयोग समेत राज्य सरकारों की ओर से बनायी जाने वाली किसी भी योजना का आधार किसान और गाँव ही होना चाहिए। योजनायें बनती भी हैं लेकिन उन्हें अमल में लाने की जिम्मेदारी उठाने वाले किसान की मूल समस्याओं को भूल जाते हैं।
विकास की अनेक कहानियों-किस्सों के बावजूद किसान आज भी तबाह है
इस सच से इनकार करना देश के साथ ज्यादती होगी, विकास की अनेक कहानियों-किस्सों के बावजूद किसान आज भी तबाह है। उसे उसकी फसल का वाजिब मूल्य कागजों में तो निश्चित मिल रहा है लेकिन असलियत जानने के लिए हमें असली किसान के पास जाना होगा। खाद, बीज और मंडी के लिए छोटे किसान आज भी तड़प रहे हैं। यह गांधी का देश है, जो किसी किसान को वायसराय बनाने का सपना देखते थे। जो किसान को संपन्न बनाने की बात करते थे, जो कहते थे कि किसानों की तरक्की के बिना भारत की तरक्की दिवास्वप्न ही होगी। आजादी के बाद से आज तक आई सभी सरकारों ने किसानों की आय बढ़ाने की बात की पर उसकी फसल का वाजिब मूल्य आज तक नहीं मिला। किसान के खेत से फसल खरीदने का इंतजाम तो अभी भी दिवास्वप्न है। हम सब जानते हैं कि किसान के खेत में जो फसल है, बाजार में उसकी दरें बेहद कम होती हैं। कई बार तो किसान की मेहनत, खाद-बीज का मूल्य, सिंचाई आदि का पैसा जोड़ दिया जाए तो उसकी कीमत भी नहीं निकलती।
हमें किसानों को बचाना है
हमें किसानों को बचाना है तो गांवों को बचाना होगा। वहाँ स्कूल, अस्पताल बनाने होंगे। छोटी-छोटी मंडियां खोलनी होंगी। नगदी फसल को बढ़ावा देने के साथ ही उनका वाजिब दाम दिलवाना होगा। आदर्श स्थिति हो कि अमूल के मॉडल को हम अपनाएँ। छोटा सा देश इजरायल हमारे लिए एक बेहतरीन मॉडल है, जिसके पास कुल जमीन की सिर्फ पांच फीसदी ही उपजाऊ जमीन है, बाकी बंजर है। पर, इजरायल खुद के लिए पर्याप्त अन्न तो पैदा ही करता है, निर्यात भी लगातार बढ़ रहा है। नेतागिरी से अलग हटकर हमें जमीन पर काम करना होगा। जल-जंगल-जमीन तभी बचेंगे, जब किसान बचेंगे। पर्यावरण तभी ठीक होगा, जब किसानों की आय बढ़ाने पर लगातार काम होगा, न कि कर्जमाफी और फ्री में पैसा एकाउंट में भेजने से। उन्हें हमें अपने पैरों पर खड़ा करने की नीति पर काम करना होगा। कोरोना ने हमें बहुत कुछ नया सिखा दिया है। इंटरनेट की उपलब्धता गाँव तक ले जाकर शहरों में रहकर इंटरनेट पर काम करने वाले युवाओं को गाँव में ही रोकने की नीति पर काम करना होगा। निजी कंपनियों को इसके लिए तैयार करना होगा और वे आसानी से तैयार भी हो जाएँगी। क्योंकि इसमें उन्हें भी फायदा होगा।

जब ये मेडिकल कॉलेज अपना स्वरूप ले लेंगे तो स्वास्थ्य सेवाओं में काफी सुधार नजर आएगा
इससे शहरों पर बोझ कम होगा। प्रतिभाएं गाँव में रहेंगी तो कई फायदे एक साथ होंगे। शहरों में भारी-भरकम किश्तों पर जीवन गुजार रहे युवाओं के पास पैसा होगा। गाँव में वे एक स्वस्थ और बेहतर जीवन जी सकेंगे। शुद्ध पानी, माँ के हाथ का खाना, बिना रासायनिक खाद के उगी सब्जियां उनकी सेहत भी ठीक रखेंगी। पर, यह इतना आसान नहीं है, जितना पढ़ने में लग रहा है। पैसे कमाने वाला युवा वहां तभी रुकेगा जब उसके छोटे बच्चों के पढ़ने के लिए बढ़िया स्कूल होगा। इलाज के लिए अस्पताल होंगे।
भारतीय प्रबंध संस्थानों से निकल रहे युवाओं को प्रेरित करके एक अच्छे मॉडल पर काम हो सकता है
हालाँकि, यूपी में अस्पतालों की दिशा में एक बहुत अच्छा काम हुआ है। बड़ी संख्या में जिला अस्पतालों को मेडिकल कॉलेज में बदलने का काम हुआ है। उम्मीद की जाती है कि जब ये मेडिकल कॉलेज अपना स्वरूप ले लेंगे तो स्वास्थ्य सेवाओं में काफी सुधार नजर आएगा। पर, अभी इसमें वक्त है। अडानी-अम्बानी जैसे उद्योगपतियों, अजीमप्रेम जी और रतन टाटा जैसे समाज सेवी उद्यमियों से मदद लेकर सीएसआर के जरिये कुछ स्कूल गांवों में खोले जा सकते हैं। इसमें भारतीय प्रबंध संस्थानों से निकल रहे युवाओं को प्रेरित करके एक अच्छे मॉडल पर काम हो सकता है। पर, यह सब तभी होगा जब हम राजनीति से बाहर आयेंगे। किसान को केवल वोट बैंक नहीं मानेंगे। उसके लिए सोचेंगे। गांधी के सपनों की तरह हमें किसानों के बारे में सोचना होगा।
(लेखक 30 वर्षों से प्रिंट और डिजिटल पत्रकारिता में सक्रिय हैं। ‘हिन्दुस्तान’ अखबार में कई केन्द्रों पर संपादक रहे हैं। )